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Dr. Charles Simonyi is the Father of Modern Microsoft Excel                                           JavaScript was originally developed by Brendan Eich of Netscape under the name Mocha, later LiveScript, and finally renamed to JavaScript.                                           The word "Biology" is firstly used by Lamarck and Treviranus                                           Hippocrates (460-370 bc) is known as father of medicine.                                           Galene, 130-200 is known as father of Experimental Physology                                           Aristotle (384-322 BC) is known as Father of Zoology because he wrote the construction and behavior of different animals in his book "Historia animalium"                                           Theophrastus(370-285 BC) is known as father of Botany because he wrote about 500 different plants in his book "Historia Plantarum".                                           John Resig is known as Father of Jquery -                                          HTML is a markup language which is use to design web pages. It was invented in 1990 by Tim Berners-Lee.                                                                The Google was founded by Larry Page and Sergey Brin.                                                                Rasmus Lerdorf was the original creator of PHP. It was first released in 1995.                                                               Facebook was founded by Mark Zuckerberg                                                               Bjarne Stroustrup, creator of C++.                                                                Dennis Ritchie creator of C                                                                                                                              James Gosling, also known as the "Father of Java"                                          At 11.44%, Bihar is India's fastest growing state                                          Father of HTML -Tim Berners Lee                                          orkut was created by Orkut Büyükkökten, a Turkish software engineer                    Photoshop: It came about after Thomas Knoll, a PhD student at the University of Michigan created a program to display grayscale images on a monochrome monitor which at the time was called 'Display'.

Mahatma Ghandhi (2 Oct 1989-30 Jan-1948)


प्रस्तावना
जब गांधीजी का जन्म हुआ, तब देश में अंग्रेजी हुकूमत का साम्राज्य था । यद्यपि 1857 की क्रांति ने ब्रिटिश सत्ता को हिलाने का प्रयास किया था, परंतु अंग्रेजी शक्ति ने उस विद्रोह को कुचल कर रख दिया । अंग्रेजो के कठोर शासन में भारतीय जनमानस छटपटा रहा था । अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अंग्रेज किसी भी हद तक अत्याचार करने के लिए स्वतंत्र थे । देश की नई पीढ़ी के जन्म लेते ही, ब्रिटिश हुकूमत गुलामी की जंजीरों से उन्हें जकड़ रही थी । लगभग डेढ़ दशक तक अंग्रेजों ने भारत पर एकछत्र राज्य किया ।
जब गांधीजी की मृत्यु हुई, तब तक देश पूरी तरह से आलाद हो चुका था। गुलामी के काले बादल छँट चुके थे । देश के करोड़ो मूक लोगों को वाणी देने वाले इस महात्मा को लोगों ने अपने सिर-आँखों पर बैठाया । इतिहास के पन्नों में गांधीजी का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा गया । गांधीजी का जीवन एक आदर्श जीवन माना गया। उन्हें भारत के सुंदर शिल्पकार की संज्ञा दी गई । उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए देशवासियों ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' की उपाधी दी ।
स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के योगदान को भुला पाना एक टेढ़ी खीर है । ब्रिटिश हुकूमत को नाको चने चबवाने वाले इस महात्मा के कार्य मील का पत्थर साबित हुए। देशवासियों के सहयोग से उन्होंने वह कर दिखाया, जिसका स्वप्न भारत के हर घर में देखा जाता था, वह स्वप्न था - दासता से मुक्ति का, अंधेरे पर उजाले की विजय का । गांधीजी के निर्देशन में देश के करोड़ों लोगों ने आततायी शक्ति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी । वे अपने आप में राजा राम मोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, दादाभाई नौरोजी आदी थे। वास्तव में उनका व्यक्तित्व इन सभी का मिश्रण था । उनके विचार-चिंतन में सभी महापुरुषों की वाणी को शब्द मिले थे । इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राजनीति के फलक पर ऐसा नीतिवान और कथन-करनी में एक जैसा आचरण करने  वाला नेता अन्य कहीं भी दिखाई नहीं देता ।
गांधीजी ने हमेशा दूसरों के लिए ही संघर्ष किया। मानो उनका जीवन देश और देशवासियों के लिए ही बना था । इसी देश और उसके नागरिकों के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया । आने वाली पीढ़ि की नज़र में मात्र देशभक्त, राजनेता या राष्ट्रनिर्माता ही नहीं होंगे, बल्कि उनका महत्व इससे भी कहीं अधिक होगा । वे नैतिक शक्ति के धनी थे, उनकी एक आवाज करोड़ों लोगों को आंदोलित करने के की क्षमता रखती थी । वे स्वयं को सेवक और लोगों का मित्र मानते थे । यह महामानव कभी किसी धर्म विशेष से नहीं बंधा शायद इसीलिए हर धर्म के लोग उनका आदर करते थे । यदि उन्होंने भारतवासियों के लिए कार्य किया तो इसका पहला कारण तो यह था कि उन्होंने इस पावन भूमि पर जन्म लिया, और दूसरा प्रमुख कारण उनकी मानव जाति के लिए मानवता की रक्षा करने वाली भावना थी ।
वे जीवनभर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे। सत्य को ईश्वर मानने वाले इस महात्मा की जीवनी किसी महाग्रंथ से कम नहीं है । उनकी जीवनी में सभी धर्म ग्रंथों का सार है। यह भी सत्य है कि कोई व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता। कर्म के आधार पर ही व्यक्ति महान बनता है, इसे गांधीजी ने सिद्ध कर दिखाया । एक बात और वे कोई असाधारण प्रतिभा के धनी नहीं थे । सामान्य लोगों की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे । रवींद्रनाथ टागोर, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य या स्वामी विवेकानंद जैसी कोई असाधारण मानव वाली विशेषता गांधीजी के पास नहीं थी । वे एक सामान्य बालक की तरह जन्मे थे। अगर उनमें कुछ भी असाधारण था तो वह था उनका शर्मीला व्यक्तित्व । उन्होंने सत्य, प्रेम और अंहिंसा के मार्ग पर चलकर यह संदेश दिया कि आदर्श जीवन ही व्यक्ति को महान बनाता है । यहां यह प्रश्न सहज उठता है कि यदि गांधी जैसा साधारण व्यक्ति महात्मा बन सकता है, तो भला हम आप क्यों नहीं ?
उनका संपूर्ण जीवन एक साधना थी, तपस्या थी । सत्य की शक्ति द्वारा उन्होंने सारी बाधाओं पर विजय प्राप्त की । वे सफलता की एक-एक सीढ़ी पर चढ़ते रहे । गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि दृढ़ निश्चय, सच्ची लगन और अथक प्रयास से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है । गांधीजी की महानता को देखते हुए ही अल्बर्ट आइंटस्टाइन ने कहा था कि, आने वाली पीढ़ी शायद ही यह भरोसा कर पाये कि एक हाड़-मांस का मानव इस पृथ्वी पर चला था ।  
सचमुच गांधीजी असाधारण न होते हुए भी असाधारण थे । यह संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए गौरव का विषय है कि गांधीजी जैसा व्यक्तित्व यहाँ जन्मा । मानवता के पक्ष में खड़े गांधी को मानव जाति से अलग करके देखना ए बड़ी भूल मानी जायेगी। 1921 में भारतीय राजनीति के फलक पर सूर्य बनकर चमके गांधीजी की आभा से आज भी हमारी धरती का रूप निखर रहा है । उनके विचारों की सुनहरी किरणें विश्व के कोने-कोने में रोशनी बिखेर रही हैं । हो सकता है कि उन्होंने बहुत कुछ न किया हो, लेकिन जो भी किया उसकी उपेक्षा करके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नहीं लिखा जा सकता ।


भारत में सत्याग्रह की शुरूआत 
गांधीजी अप्रैल 1893 में दक्षिण अफ्रीका गये थे। जनवरी 1915 में महात्मा बनकर वे भारत लौटे। अब उनके जीवन का एक ही मकसद था - लोगों की सेवा। गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में जितने लोकप्रिय थे, उतना भारत में नहीं, क्योंकि अभी तक उनका संघर्ष, सत्याग्रह, आंदोलन दक्षिण अफ्रीका में बसे भारतीयों के लिए ही सीमित था। रवींद्रनाथ टगौर ने इस महात्मा की भारत वापसी का स्वागत करते हुए शांति निकेतन में आने का निमंत्रण भी दिया। गांधीजी शांति निकेतन और भारतीय परिस्थिती से ज्यादा परिचित नहीं थे। गोखले की इच्छा थी कि गांधीजी भारतीय राजनीति में सक्रिय योगदान दें। अपने राजनीतिक गुरू गोखले को उन्होंने वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष भारत में रहकर देश के हालात का अध्ययन करेंगे। इस दौरान 'केवल उनके कान खुले रहेंगे, मुँह पूरी तरह बंद रहेगा।' एक तरह से यह गांधीजी का एक वर्षीय 'मौन व्रत' था।
वर्ष की समाप्ति के समय गांधीजी अहमदाबाद स्थित साबरमती नदी के तट के पास आकर बस गये। उन्होंने इस सुंदर जगह पर साबरमती आश्रम बनाया। इस आश्रम की स्थापना उन्होंने मई 1915 में की थी। वे इसे 'सत्याग्रह आश्रम' कहकर संबोधित करते थे। आरंभ में इस आश्रम से कुल 25 महिला-पुरुष स्वयंसेवक जुड़े। जिन्होंने सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। इन स्वयंसेवकों ने अपना पूरा जीवन 'लोगों की सेवा में' बिताने का निश्चय किया।
गांधीजी का 'मौन व्रत' समाप्त हो चुका था। पहली बार भारत में गांधीजी सार्वजनिक सभा में भाषण देने के लिए तैयार थे। 4 फरवरी 1916 के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में छात्रों, प्रोफेसरों, महाराजाओं और अंग्रेज अधिकारीयों की उपस्थिति में उन्होंने भाषण दिया। इस अवसर पर वाइसराय भी स्वयं उपस्थित था। एक हिन्दू राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में अंग्रेजी भाषा में बोलने की अपनी विवशता पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने भाषण की शुरूआत की। उन्होंने भारतीय राजाओं की तड़क-भड़क, शानो-शौकत, हीरे-जवाहरातों तथा धूमधाम से आयोजनों में होने वाली फिजूल खर्ची की चर्चा की। उन्होंने कहा,"एक ओर तो अधिकांश भारत भूखों मर रहा है और दूसरी ओर इस तरह पैसों की बर्बादी की जा रही है।" उन्होंने सभा में बैठी राजकुमारीयों के गले में पड़े हीरे-जवाहरातों की ओर देखते हुए कहा कि 'इनका उपयोग तभी है, जब ये भारतवासियों की दरिद्रता देर करने के काम आयें।' कई राजकुमारीयों और अंग्रेज अधिकारीयों ने सभा का बहिष्कार कर दिया। उनका भाषण देश भर में चर्चा का विषय बन गया था।
भारत में गांधीजी का पहला सत्याग्रह बिहार के चम्पारन में शुरू हुआ। वहाँ पर नील की खेती करने वाले किसानों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। अंग्रेजों की ओर से खूब शोषण हो रहा था। ऊपर से कुछ बगान मालिक भी जुल्म छा रहे थे। गांधीजी स्थिति का जायजा लेने वहाँ पहुँचे। उनके दर्शन के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। किसानों ने अपनी सारी समस्याएँ बताईं। उधर पुलिस भी हरकत में आ गई। पुलिय सुपरिटेंडंट ने गांधीजी को जिला छोड़ने का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश मानने से इंकार कर दिया। अगले दिन गांधीजी को कोर्ट में हाजिर होना था। हजारों किसानों की भीड़ कोर्ट के बाहर जमा थी। गांधीजी के समर्थन में नारे लगाये जा रहे थे। हालात की गंभीरता को देखते हुए मेजिस्ट्रेट ने बिना जमानत के गांधीजी को छोड़ने का आदेश दिया। लेकिन गांधीजी ने कानून के अनुसार सजा की माँग की।
फैसला स्थगित कर दिया गया। इसके बाद गांधीजी फिर अपने कार्य पर निकल पड़े। अब उनका पहला उद्देश लोगों को 'सत्याग्रह' के मूल सिद्धातों से परिचय कराना था। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्त करने की पहली शर्त है - डर से स्वतंत्र होना। गांधीजी ने अपने कई स्वयंसेवकों को किसानों के बीच में भेजा। यहाँ किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया। सारी गतिविधियाँ गांधीजी के आचरण से मेल खाती थीं। स्वयंसेवकों ले मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम किया। लोगों को उनके अधिकारों का ज्ञान कराया गया।
चंपारन के इस गांधी अभियान से अंग्रेज सरकार परेशान हो उठी। सारे भारत का ध्यान अब चंपारन पर था। सरकार ने मजबूर होकर एक जाँच आयोग नियुक्त किया, गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया।। परिणाम सामने था। कानून बनाकर सभी गलत प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया। जमींदार के लाभ के लिए नील की खेती करने वाले किसान अब अपने जमीन के मालिक बने। गांधीजी ने भारत में सत्याग्रह की पहली विजय का शंख फूँका। चम्पारन ही भारत में सत्याग्रह की जन्म स्थली बना।
गांधीजी चंपारन में ही थे, तभी अहमदाबाद के मिल-मजदूरों द्वारा तत्काल साबरमती बुलाया गया। मिल-मजदूरों के खिलाफ मिल-मालिक कठोर कदम उठाने जा रहे थे। दोनों पक्षों के बीच गांधीजी को सुलह करानी थी। जाँच-पड़ताल और दोनों पक्षों से बातचीत करने के बाद गांधीजी का निर्णय मजदूरों के पक्ष में गया। लेकिन मिल-मालक मजदूरों को कोई भी आश्वासन देने के लिए तैयार न थे। इसलिए गांधीजी ने मजदूरों का उत्साह घटता गया और हिंसा की आशंका बढ़ने लगी। गांधीजी ने इसे बनाये रखने के लिए खुद उपवास पर बैठ गये। इसके बाद मालिकों और मजदूरों का एक बैठक हुई जिसमें बातचीत करके समस्या का हल निकाला गया और हड़ताल समाप्त हो गई।
गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की फसलें बरबाद हो चुकी थी। गरीब किसानों को सरकार द्वारा लगान चुकाने के लिए दबाव डाला जा रहा था। गांधीजी ने खेड़ा जिले में एक गांव से दूसरे गांव तक की पदयात्रा आरंभ की। गांधीजी ने 'सत्याग्रह' का आवाहन किया। उन्होंने किसानों से कहा कि वे तब तक सत्याग्रह के मार्ग पर चलें, जब तक सरकार उनका लगान माफ करने की घोषणा न करे। चार महीने तक यह संघर्ष चला। इसके बाद सरकार ने गरीब किसानों का लगान माफ करने की घोषणा की। गांधीजी एक बार फिर सफल हुए।


'रौलेट एक्ट' विरोध और दांडी यात्रा
यह 'रौलेट एक्ट' ही था, जिसके कारण गांधीजी ने भारतीय राजनीति में कदम रख। वर्ष 1919 से लेकर 1948 तक भारतीय राजनीति के केंद्र में महात्मा गांधी ही छाये रहे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वक नायक बने रहे। राजनीति में सक्रिय होते ही गांधीजी ने भारतीय राजनीति का रूप-रंग ही बदल डाला। उनके संघर्ष के कारण लोगों ने उन्हें देवता तक मान लिया।
यूँ तो रौलेट बिल कोई सामान्य नहीं था। इसे लेकर पूरे भारत में खलबली मची थी। गांधीजी भी यह तय करने में जुटे थे कि इस बिल के विरोध का रूप कैसा हो ? उनकी चिंता का विषय हिंसा था। वे नहीं चाहते थे कि अपार उत्साह में विरोध करने में जुटा जनमानस हिंसा पर उतारू हो। अंत में गांधीजी के मन में यह विचार आया कि क्यों न विरोध दर्ज कराने के लिए सभी क्षेत्रों में शांतिपूर्ण हड़ताल की जाये।
गांधीजी के आवाहन पर देशव्यापी हड़ताल शुरू हुई। हिंदु-मुस्लिम के उत्साह ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया। गांधीजी तक को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि लोगों का इतना जबरदस्त समर्थन मिलेगा। अंग्रेज सरकार के भी कान खड़े हो गये। ऐसा लगा कि जैसे कोई भूकंप ब्रिटिश साम्राज्य को हिला रहा हो। दिल्ली से लेकर अमृतसर तक गांधीजी का जादू छा गया था। गांधीजी पंजाब जाना चाहते थे, लेकिन उन्हें रास्ते में ही गिरफ्तार कर बंबई वापस लाया गया।
गांधीजी की गिरफ्तारी की खबर जंगल में लगी आग की तरह फैल गयी। लोगों की भीड़ विभिन्न शहरों में जुटने लगीं, कुछ छिटपुट हिंसक घटनायें भी हुई। जब गांधीजी अहमदाबाद लौटे तो उन्हें सूचना मिली कि क्रोधित भीड़ ने एक पुलिस अधिकारी की हत्या कर दी। गांधीजी ने कहा, 'यदि मेरे सीने में खंजर घोंप दिया जाता तो भी मुझे इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी कि हिंसा की इस घटना से हुई है।' इस घटना से वे बेचैन हो उठे। गांधीजी ने सत्याग्रह वापस ले लिया और इस पाप का प्रायश्चित करने के लिए तीन दिनों का उपवास रखा।
जिस दिन 13 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने तीन दिन के उपवास की घोषणा की, उसी दिन पंजाब के अमृतसर जिले के जालियाँवाला बाग में भीषण घटना घटी। ब्रिटिश जनरल डायर ने अपनी फौज के साथ जालियाँवाला बाग में धावा बोल दिया। शांत, निरपराध जनता पर बेरहमी से कई चक्र गोलियाँ दागी गयीं। बाद में सरकार ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि इस घटना में कुल 400 लोग मारे गये और 1,000 से 2,000 लोग मारे गये और 3,600 लोग गंभीर रूप से जख्मी हुए। इसके खिलाफ पूरा देश इकट्ठा हुआ। हालात की गंभीरता को देखते हुए पंजाब में 'मार्शल लॉ' लागू हुआ। यह कार्रवाई इतनी अमानवीय थी कि स्वयं सर वैलेंटाइन ने कहा कि, ृयह दिन एक एकसा 'काला दिन' था, जिसे ब्रिटिश सरकार चाहकर भी नहीं भूल पायेगी।ृ अब गांधीजी के लिए चुप बैठना असंभव था।
गांधीजी ने अब एक नये मार्ग को खोजा जो ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दे। हिंदु-मुस्लिम को एक मंच पर लाकर उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 'असहयोग आंदोलन' शुरू करने का मंत्र दिया। किसी जादूगर की तरह उन्होंने अपना आंदोलन शुरू किया। देश के कोने-कोने तक उनका आंदोलन रंग ला रहा था। सबसे पहले इस आंदोलन की शुरूआत खुद गांधीजी ने की। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की गई उनकी सेवा के लिए जो मेडल उन्हें मिला था, उसे उन्होंने वाईसराय को लौटा दिया। कई भारतीय विद्वानों ने अपनी पदवी लौटा दीं। कुछेक ने सरकार द्वारा दिये सम्मान को लौटाया। वकीलों ने वकालत, छात्रों ने स्कूल और कॉलेज छोड़ दिये। हजारों की संख्या में लोंगो ने गाँव-गाँव जाकर इस आंदोलन की मशाल को जलाया। सब कुछ अहिंसा का पालन करते हुए हो रहा था। विदेशी कपड़ों की होली देश के कोने-कोने में जलने लगी। लोग चरखा कातने लगे। चूल्हा-चौकों तक सिमटी भारतीय महिलाएँ भी रास्ते पर आकर प्रदर्शन करने लगीं। गांधीजी के भाषण, लेख लोगों को और भी आंदोलित कर रहे थे। 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन' साप्ताहिक में छपे उनके लेचा लो काफी रस लेकर पढ़ते थे। हजारों लोगों को उठाकर जेल में बंद किया गया। कई नागरीकों पर अदालत में मुकदमे चले।
फरवरी 1922 में इस आंदोलन में उस समय ठहराव आ गया, जब उग्र भीड़ ने चौरी-चौरा में हिंसा की। इस हिंसा के समाचार सं गांधीजी काफी निराश हुए। उन्होंने आंदोलन कां स्थगित कर दिया। साथ ही जनता की इस हिंसात्मक कार्रवाई को अपराध मानते हुए उन्होंने पाँच दिन का उपवास शुरू किया। इस दौरान वे ईश्वर से प्रार्थना करके लोगों के इस कार्य के प्रति क्षमा भी माँगते रहे। आंदोलन स्थगित हुआ देख सरकार के हाथ सुनहरा मौका लगा, उसने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया। अदालत में जज़ ने उन्हें 6 वर्ष की सजा सुनाई। साथ ही सह भी जोड़ा कि यदि इस दौरान आंदोलन थम गया तो गांधीजी की सजा और कम कर दी जायेगी। जज़ ने कहा, ृयदि ऐसा हुआ तो मुझे काफी प्रसन्नता होगी।ृ
गांधीजी के लिए यह सजा, सजा न होकर एक वरदान साबित हुई। वे अपना सारा समय प्रार्थना करने, अध्ययन करने और सूत कातने में बिताते थे। लेकिन जनवरी 1924 में वे 'एक्यूट एपेंडिसायटिस' के शिकार होकर गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। उन्हें पूना के एक अस्पताल में ले जाया गया। जहाँ एक ब्रिटिश सर्जन ने उनका सफल ऑपरेशन किया। इसके बाद सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया।
इसके बाद की स्थिति ने गांधीजी को और भी विचलित कर दिया। सांप्रदायिक दंगों में झुलसते देश को देख उनका हृदय कराहने लगा। स्थिति को देखते हुए गांधीजी ने 21 दिन उपवास का निश्चय किया। ृव्रत और प्रार्थना इसलिए ताकि मेरे देश के लोगों के दिल आपस में मिल सकें। वे एक-दूसरे के धर्म और उनकी भावनाओं को समझ सकें।ृ
अगले पाँच वर्षों तक गांधीजी ने भारतीय राजनीति में कुछ विशेष योगदान नहीं दिया। अब उनका लक्ष्य भारतीय समाज में परिव्याप्त विषमताओं को दूर करना था। लोगों की प्राथमिक आवश्यकताओं, हिंदु-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता (छूआछूत) महिलाओं की समानता, जनसंख्या समस्या आदि की ओर उन्होंने ध्यान दिया। भारतीय गाँवों के पुनर्निर्माण का स्वप्न वे देखने लगे। ूमैं चाहता हूँ कि अंग्रेजी गुलामी के साथ-साथ देश के नागरिक सामाजिक और आर्थिक गुलामी से भी मुक्ति पायें।ृ
यह भी एक सच्चाई है कि जेल सं आजाद होने के बाद गांधीजी ने देखा कि कांग्रेस बँट चुकी है। वर्ष 1929 तक कई नेता अपने-अपने स्तर पर, अलग-अलग मंच बनाकर आजादी की लड़ाई लड़ने लगे। यह बिखराव गांधीजी के मन को नहीं जँचा। एक बार फिर गांधीजी उठ खड़े हुए। राष्ट्र के नेतृत्व की कमान उन्होंने सँभाल ली। 26 जनवरी 1930 को उनके नेतृत्व में देश को आजाद कराने की शपथ देश के कोने-कोने में ली गई। यह ब्रिटिश सरकार को एक कड़ी चेतावनी थी। गांधीजी का 'पूर्ण स्वराज' का नारा देश के कोने-कोने में गूँज रहा था। अब सारे देश की नजरें साबरमती की ओर थीं।
12 मार्च 1930 को गांधीजी ने वाइसराय को सूचित किया कि वे अपने 78 अनुयाइयों के साथ दांडी यात्रा करने जा रहे हैं। आश्रम के कई सदस्य, पुरुष और महिलायें 24 दिन की ऐतिहासिक यात्रा पर रवाना हुए। गरीब किसान ब्रिटिश कानून के कारण अपनी नमक की खेती नहीं कर पर रहे थे। वैसे देखने में तो यह सामान्य मुद्दा था, लेकिन एक 'बूढ़े' द्वारा 241 मील तक की इस पैदल यात्रा ने ब्रिटिश सरकार की नींद हराम कर दी। 6 अप्रैल 1930 की सुबह गांधीजी ने सबसे पहले प्रार्थना की। इसके बाद वे नमक के खेत के पास गये और मुठ्ठी भर नमक उठाकर 'नमक कानून' को भंग कर दिया। इसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर देश के कोने-कोने में गांधीजी का अनुकरण करते हुए इस कानून को लोगों ने तोड़ा। पुरुष-महिलाएँ, गाँवों के किसानों ने हजारों ने हजारों की संख्या में जुलूस निकाले। लोगों ने गिरफ्तारीयाँ दीं। पुलिस ने लाठी चार्ज किया, कई स्थलों पर पुलिस ने गोलियाँ भी चलाईं। 4 मई की रात गांधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ ही हफ्तों में हजारों लोग जेल में ढकेल दिये गये।
नवंबर 1930 में प्रथम गोलमेज परिषद आयोजित हुई। सरकार ने देश में फैले इस आंदोलन की समीक्षा की। इस सम्मेलन की समाप्ति वाले सत्र में 19 जनवरी 1931 के दिन रामसे मैकडोनाल्ड ने यह आशा व्यक्त की कि दूसरे गोलमेज परिषद में कांग्रेस भी शामिल होगी। गांधीजी और अन्य कांग्रेसी नेताओं को बिना किसी शर्त के 26 जनवरी को रिहा कर दिया गया। ठीक उसके एक वर्ष बाद जब स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रतिज्ञा की गई थी। जल्द ही 14 फरवरी को गांधीजी और इरविन के बीच में शुरू हुई। कई असहमतियों के बाद भी बातचीत जारी रही। साढ़े तीन घंटे की पहली वार्ता 17 फरवरी को हुई और इसके बाद कई दिनों तक चली। 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता हो गया। गांधीजी ने कहा - 'यह समझौता सशर्त है।' इस समझौते से भारत में शांति व्यवस्था कायम होनी थी। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस ले लिया गया था। सभी राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके साथ ही समुद्र तटों के आसपास नमक की बिक्री खुली कर दी गई। राजनैतिक दृष्टि से सबसे बड़ा ऐतिहासिक लाभ यह हुआ कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, लंदन में होने वाली गोलमेज सम्मेलन के दूसरे दौर में भाग लेने को सहमत हो गई।



देश को मिली आजादी, पर गांधीजी नहीं रहे!
ब्रिटिश सरकार भारत की स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रही थी। चारों ओर उसके खिलाफ भारतीयों ने मोर्चा खेल दिया था। 1945 में ब्रिटेन में हुए चुनावों में चर्चिल हार गये, लेबर सरकार सत्ता में आई। नया प्रधानमंत्री भारत को अपने हाथ से निकलना नहीं देना चाहता था। लॉर्ड वॉवेल को वापस भारत भेजा गया। वापस आने पर उसने एक नयी योजना की घोषणा की। जिसके अनुसार नये संविधान की शुरूआत के रूप में प्रांतीय और केंद्रिय विधान सभाओं के चुनाव होने थे। इंग्लैंड से एक कैबिनेट मिशन आया। इस मिशन का उद्देश भारतीय नेताओं से बातचीत कर संयुक्त भारत के लिये संविधान बनाना था। लेकिन कांग्रेस और मुस्लिमों को एक साथ लेकर चलने में वे नाकाम रहे। मुस्लिमों की राय भारत से अलग होने की थी।
12 अगस्त 1946 को वाइसराय ने वार्ता के लिए जवाहरलाल नेहरू को आमंत्रित किया। उधर जिन्ना ने 'सीधी कार्रवाई दिन' का ऐलान कर दिया। बंगाल में काफी खून-खराबा हुआ। देश के कोने-कोने में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे। गांधीजी के समझ में नहीं आ रहा था कि अलग से मुस्लिम राष्ट्र की माँग क्यों की जा रही है? उन्होंने मुहम्मद अली जिन्ना से अनुरोध करते हुए कहा था, ूयदि तुम चाहो तो मेरे टुकड़े कर लो, पर भारत को दो हिस्सों में न बाँटो।" गांधीजी दिल्ली की भंगी बस्ती में रहने चले गये, जहाँ दिन-प्रतिदिन हिंसा के खिलाफ उनका स्वर जोर पकड़ता गया।
तभी दिल को दहला कर रख देने वाला समाचार आया। पूर्वी बंगाल के नोआखली जिले में कई निर्दोष नागरिक सांप्रदायिक दंगे में मारे गये। अब गांधीजी के लिए शांत बैठे रहना असंभव था। उन्होंने निश्चय किया कि दोनों धर्में के बीच गहराती जा रही खाईं को वे अवश्य पाटेंगे, भले ही उसके लिए उन्हें अपने प्राणों का बलिदान देना पड़े। उनका कहना था, ूयदि भारत को आजादी मिल भी गई और उसमें हिंसा होती रही तो वह आजादी गुलामी से भी बदतर होगी।" नोआखली में मुस्लिम सरकार सत्ता में थी, गांधीजी ने वहाँ पदयात्रा करने का निर्णय लिया। जब वे कलकत्ता में थे तो उन्हें समाचार मिला कि नोआखली का बदला लेने के लिए बिहार में भी हिंसा का घिनौना कार्य किया गया। गांधीजी का दिल रोने लगा। यह वही स्थल था जहाँ से इस महात्मा ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह शुरू किया था। गांधीजी ने बिहारियों को चेतावनी देते हुए कहा कि, "यदि हिंसक कार्रवाई जल्द नहीं रोकी गई तो वे तब तक उपवास रखेंगे जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो जाती।" गांधीजी के इस प्रण को सुनते ही तुंत बिहार में हिंसा रोक दी गई। गांधीजी नोआखली रवाना हो गये।
वहाँ के हालात ने उन्हें विचलित कर दिया। जिस क्षेत्र में वे प्रेम व भाईचारे का मंत्र ले गये थे। वहाँ तो एक समुदाय दूसरे समुदाय के खून का प्यासा हुआ था। कई लोगों की हत्याएँ हुई। महिलाओं पर बलात्कार हुए और कईयों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया गया। गांधीजी के रोंगटे खड़े हो गये। पुलिस सुरक्षा को इंकार करते हुए, केवल एक बंगाली स्टेनोग्राफर को साथ लिए 77 वर्ष का यह महात्मा गाँव-से-गाँव तक, घर-से-घर तक की पदयात्रा कर रहा था। गांधीजी दोनों धर्मों के बीच प्रेम का सेतु (पुल) बनाना चाहते थे। वे फलाहार ही करते और हिंदु-मुस्लिम के दिलों को एक करने के लिए दिन-रात एक कर रहे थे। "मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य है कि ईश्वर हिंदुओं और मुस्लिमों के दिलों को मिलायें। एक दूसरे के प्रति उनके मन में कोई डर या दुश्मनी न रहे।"
नोआखली में 7 नवंबर 1946 से 2 मार्च 1947 तक गांधीजी रहे। इसके बाद वे बिहार चले गये। यहाँ भी उन्होंने वही किया, जो नोआखली में किया था। गाँव-से-गाँव तक की पदयात्रा की। लोगों को उनकी गलती का एहसास कराने के साथ जिम्मेदारियों से भी परिचित कराया। घायलों के इलाज के लिए उन्होंने रूपए इकट्ठे करने शुरू किये। यह गांधीजी का ही प्रभाव था कि एक धर्म की महिलाएँ दूसरे धर्म के लोगों के इलाज के लिए अपने गहने तक उतार कर दे रहीं थी। गांधीजी ने बिहार के लोगों से कहा, "यदि दुबारा उन्होंने हिंसा का मार्ग अपनाया, तो वे गांधीजी को हमेशा के लिए खो देंगे।"
नये वाइसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने मई 1947 में गांधीजी को दिल्ली बुलाया। जहाँ कांग्रेसी नेताओं के साथ जिन्ना भी उपस्थित थे। जिन्ना मुस्लिमों के लिए अलग राष्ट्र की माँग पर अड़े थे। गांधीजी ने जिन्ना को समझाने का लाख प्रयास किया पर वह टस-से-मस नहीं हुए।
आखिर वह दिन भी आ गया, जब भारत आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ। गांधीजी ने इस दिन आयोजित किये गये समारोह में भाग न लेकर कलकत्ता जाना उचित समझा। जहाँ सांप्रदायिक दंगों की आग सब कुछ तहस-नहस कर रही थी। गांधीती के वहाँ जाने पर धीरे-धीरे स्थिति शांत हो गई। कुछ दिन वहाँ पर गांधीजी ने प्रार्थना एवं उपवास में गुजारें। दुर्भाग्य से 31 अगस्त को कलकत्ता दंगों की आग में जलने लगा। सांप्रदायिक दंगों की आड़ में लूट, हत्या, बलात्कार का भीषण कांड शुरू हुआ। अब गांधीजी के पा एक ही विकल्प था 'अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक व्रत करना।' गांधीजी की इस घोषणा ने सारी स्थिति ही बदल डाली। उनका जादू लोगों पर चल गया। 4 सितंबर को विभिन्न धर्मों के नेताओं ने उनसे इस धार्मिक पागलपन के लिए माफी माँगी। साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि अब कलकत्ता में दंगे नहीं होंगे। नेताओं की इस शपथ के बाद गांधीजी ने व्रत तोड़ दिया। कलकत्ता तो शांत हो गया किंतु भारत-पाक विभाजन के कारण अन्य शहरों में दंगों ने जोर पकड़ लिया।
गांधीजी सितंबर 1947 में तब दिल्ली लौटे तो उस शहर में भी सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे। पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों पर हुए निमर्म अत्याचार ने आग में घी का काम किया। दिल्ली के सिखों और हिंदुओं ने बदले की भावना से कानून को अपने हाथ में ले लिया। मुस्लिमों के घरों को लूटा गया, धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुँचाया गया, हत्याओं का दौर शुरू हुआ। सरकार सख्त कदम उठाना चाहती थी, लेकिन जनता के सहयोग के बिना वह कुछ भी कर पाने में असमर्थ थी। इस डरावने और अराजकता के माहौल में गांधीजी निडर होकर रास्ते पर आ खड़े हुए। लोगों के बीच इस तरह आने का साहस कर ना उसी महात्मा के वश की बात थी।
गांधीजी का जन्मदिन आ गया। 2 अक्तूबर को पूरे देश में ही नहीं, बल्कि विश्व में उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाने वाला था। गांधीजी को बधाइयाँ देने वालों का ताताँ बँध गया। गांधीजी ने कहा, "बधाई कहाँ से आ गई? इधर देश जल रहा है। चारों ओर हिंसा का साम्राज्य है। मेरे हृदय में जरा भी प्रसन्नता नहीं...। लोगों को इस तरह लड़ते-झगड़ते देख मुझे और जीने की बिलकुल इच्छा नहीं होती।"
गांधीजी की पीड़ा बढ़ती ही जा रही थी। उनके दिल्ली में होने के बावजूद हिंसा-लूटपाट रूकने का नाम नहीं ले रहा था। अभी भी शहर के मुसलमान निडर होकर दिल्ली की सड़कों पर नहीं चल सकते थे। गांधीजी पाकिस्तान भी जाना चाहते थे ताकि वहाँ के पीड़ितों के लिए भी कुछ कर सकें। लेकिन दिल्ली के हालात काफी नाजुक थे। ऐसे बुरे दौर में दिल्ली को छोड़ना उनके लिए संभव नहीं था। गांधीजी स्वयं को असहाय महसूस करने लगे। 'मैने अपने आपको कभी भी इतना असहाय महसूस नहीं किया था।' वे 13 जनवरी 1948 को उपवास पर बैठ गये। उन्होंने यह भी कहा, 'ईश्वर ने मुझे व्रत रखने के लिए ही भेजा है।' उन्होंने लोगों सं कहा कि वे उनकी चिंता न करें, बल्कि 'नई रोशनी' की खोज में जुटें।
परिस्थितियाँ बदलने जा रही थीं। यह कहना मुश्किल है कि रोशनी किस-किसके दिल में उतरी। 18 जनवरी को दुख-दर्द भरे सप्ताह के बाद गांधीजी के पास विभिन्न धर्मों, संस्थाओं और हिंदु संघ 'आर एस एस' के लोग गांधीजी से मिलने दिल्ली के बिरला हाउस आये। वहाँ गांधीजी स्तिर पड़े हुए थे। उन्होंने लोगों का मुस्कुरा कर स्वागत किया। सभी लोगों के गांधीजी को एक पत्र दिया, जिसमें लिखा था - 'हम सब लोगों के प्राणों की रक्षा करेंगे। मुस्लिमों का विश्वास जीतेंगे। अब फिर दिल्ली में इस तरह की घटनाएँ नहीं होंगी।' गांधीजी ने अपना व्रत तोड़ दिया। संसार के विभिन्न कोने में इस घटना की चर्चा हुई।
अब तक गांधीजी के व्रत ने विश्व के करोड़ों लोगों के दिलों को छू लिया था। लेकिन कट्टर हिंदुओं पर इसका अलग प्रभाव पड़ा। उन्हें लगा कि गांधीजी ने इस तरह का व्रत करके हिंदुओं को 'ब्लैकमेल' किया है। गांधीजी के पाकिस्तान के प्रति दृष्टिकोन पर भी उनका नजरिया कुछ ज्यादा अच्छा नहीं था।
व्रत समाप्ति के दूसरे दिन हमेशा की तरह जब गांधीजी शाम की प्रार्थना में थे तो उन पर बम फेंका गया। सौभाग्य से निशाना चूक गया। गांधीजी बच गये। पर गांधीजी जरा भी विचलित नहीं हुए, वे नीचे बैठ गये और अपनी प्रार्थना जारी रखी। गांधीजी कई वर्षों से जनता के साथ प्रार्थना कर रहे थे। हर शाम वे जहाँ कहीं भी होते, वे अपनी प्रार्थना सभा खुले मैदान में रखते। जहाँ वे लोगों से वार्ता भी करते। इस प्रार्थना सभा में सभी का स्वागत था। इसमें रूढिवादिता को, किसी विशेष धर्म को कोई स्थान नहीं था। सभी लोग प्रार्थना गीत गाते। अंत में गांधीजी हिंदी भाषा में दो शब्द बोलते। यह जरूरी नहीं था कि वे किसी धार्मिक थीम पर ही बोलें, वे दिन भर की किसी भी घटना पर बोलते। यह गांधीजी का नियम था। वे किसी भी विषय पर बोलते लेकिन उनका मकसद लोगों को सही दिशा देना ही होता था।
कई बार गांधीजी का सुनने सैकड़ों तो कई अवसरों पर हजारों की भीड़ उमड़ती। जहाँ भी उनकी प्रार्थना सभा होती उनके अनुयाइयों का ताताँ लग जाता। एक छोटे से मंच पर बैठकर गांधीजी अपनी बात कहते। हिंसा का क्रम जारी था। गांधीजी इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए लोगों से आग्रह करते रहे। पाकिस्तान के विभाजन और बदले की भावना से समाज का एक बड़ा वर्ग क्रोधित था। गांधीजी को चेतावनी दी गई कि उनका जीवन खतरे में है। पुलिस अधिकारी चिंतित थे, क्योंकि गांधीजी ने सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया। 'अपने ही देश में, अपने ही लोगों के बीच मुझे सुरक्षा लेने की आवश्यकता नहीं।' 40 वर्ष पूर्व दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने कहा था, "जीवन में सभी की मृत्यु निश्चित है। चाहे कोई अपने भाई के हाथों मरे, चाहे किसी रोग का शिकार होकर या फिर किसी और बहाने। मरना कोई दुख की बात नहीं है। मैं इससे नहीं डरता।"
गांधीजी को मृत्यु से भय नहीं था। बम फेंके जाने की घटना के दस दिन बाद 30 जनवरी 1948 के दिन गांधीजी बिरला पार्क के मैदान में प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे। वे कुछ मिनट देरी से पहुँचे। समय से पाँच-दस मिनट देरी से पहुँचने के कारण वे मन-ही-मन में बड़बड़ाने लगे। 'मुझे ठीक पाँच बजे यहाँ पर पहुँचना था।' गांधीजी ने वहाँ पहुँचते ही अपना हाथ हिलाया, भीड़ ने भी अपने हाथों को हिलाकर उनका अभिवादन किया। कई लोग उनके पाँव छूकर आशीर्वाद लेने के लिए आगे बढ़े। उन्हें ऐसा करने से रोका गया क्योंकि गांधीजी को पहले ही देरी हो चुकी थी। लेकिन पूना के एक हिंदू युवक ने भीड़ को चीरते हुए अपने लिए जगह बनाई। गांधीजी के नजदीक पहुँचते ही उसने अपनी अटॉमेटिक पिस्तोल से गांधीजी के दिल को निशाना बनाते हुए तीन गोलीयाँ दाग दी। गांधीजी गिर पड़े, उनके होठों से ईश्वर का नाम निकला - 'हे राम'। इससे पहले की उन्हें अस्पताल ले जाया जाता, उनके प्राण निकल चुके थे। प्रेम का यह पुजारी दुनिया को अलविदा कह गया।
अपने ही लोगों द्वारा महात्मा की हत्या उन लोगों के लिए शर्म की बात थी जो गांधीजी के प्रेम, सत्य, अहिंसा के सिद्धांत को न समझ सके। राष्ट्र की उमड़ी भावना को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दुखी, करूणाभरी आवाज में रेडियो पर कुछ यूँ कहा -
"वह ज्योति चली गई, जिसने लोगों के अंधकारमय जीवन को रोशनी दी। चारों ओर अंधेरा हो गया है। मैं चुप नहीं रह सकता। लेकिन मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं आप लोगों से क्या कहूँ और कैसे कहूं। हम सबके लाड़ले नेता, जिन्हें हम 'बापू' कहते थे, देश के राष्ट्रपिता अब नहीं रहें... हमारे सिर से उनका साया चला गया। 'बापू' ने देश को जो प्रकाश दिया था वह कोई सामान्य नहीं था। वह जीवन जीने का मंत्र देने वाली ज्योति थी। उस रोशनी ने देश के कोने-कोने में उजाला फैलाया। संपूर्ण विश्व ने इसे देखा। उनके सत्य, प्रेम, अहिंसा के दिपक हमेशा इस देश के लोगों को अपनी रोशनी देते रहेंगे.....।"
ऐसे लोग मर कर भी जिंदा रहते है। गांधीजी ने अपने दम पर विश्व को यह दिखला दिया कि प्रेम, सत्य और अहिंसा का मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है। इसी का प्रयोग करके उन्होंने देश को आजादी दिलाई। समाज के गरीब, असहाय और अछूतों के उद्धार के लिए किये गये उनके कार्यों को भी भुलाया नहीं जा सकता। स्वराज, सत्याग्रह, प्रार्थना, सत्य, प्रेम, अहिंसा, स्वतंत्रता के संबंध में उनके सिद्धांत बड़े बेशकीमती रत्न हैं। गांधीजी का जीवन लोगों के लिए था। उन्होंने मानवता के लिए अपना बलिदान दे दिया। यह भी सच है कि जिस व्यक्ति ने सबको अपने बराबर समझा, हमारे इस युग में उसके बराबर कोई नहीं था। जितना भी हम उनके बारे में जानते हैं, बस यही कि वह 'कथनी-करनी' में एकनिष्ठ रहने वाले थे। सबसे बुद्धिमान, संवेदनशील, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, सिद्धांतवादी थे। ऐसे महापुरुष बार-बार जन्म नहीं लेते। गांधीजी के विचारो पर चलकर देश की वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी सुनहरे भारत का सुनहरा इतिहास लिख सकती है। 'हे बापू तुम्हें नमन!'


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